यदि द्वितीय विश्व युद्ध के परिणाम अलग होते तो नेताजी की भूमिका क्या होती, अपनी किताब ‘ए बर्ड फ्रॉम अफार’ में अंशुल चतुर्वेदी ने अपने काल्पनिक विचार प्रकट कीये

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नई दिल्ली: रोजाना दिनचर्या की एक शाम, इतिहास के चैप्टर के साथ, जिसमें युग पुरुष सुभाष चंद्र बोस पर वरिष्ठ पत्रकार अंशुल चतुर्वेदी द्वारा लिखा गया पहला ऐतिहासिक उपन्यास, जिसका शीर्षक ‘‘ए बर्ड फ्रॉम अफर” था। बुधवार को प्रभा खेतान फाउंडेशन द्वारा आयोजित और श्री सीमेंट द्वारा प्रस्तुत एवं इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के सहयोग से दिल्ली में एक सप्ताह तक चलने वाले किताब महोत्सव में नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कंत ने एक भव्य कार्यक्रम में इस पुस्तक को लॉन्च किया। इस अवसर पर मार्केटिंग मावेन सुहेल सेठ और राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म निर्माता नीला माधब पांडा विशेष अतिथि के रुप में उपस्थित थे।  

चतुर्वेदी ने अपनी चौथी पुस्तक में द्वितीय विश्व युद्ध 1942 में महत्वपूर्ण क्षणों का अलग तरीके से वर्णन किया है। इसमें उन्होंने सुभाष और उनकी भारतीय सेना के ‘चलो दिल्ली’ के जरिये जर्मनी की ओर रुख करने का एक काल्पणिक अवसर पेश किया है। काल्पनिक

इस पुस्तक के पीछे अपनी प्रेरणा के बारे में चतुर्वेदी ने कहा, सुभाष बोस कई लोगों के लिए बहुत कुछ हैं, लेकिन, मेरे लिए वह निश्चित रूप से एक वीर योद्धा से बढ़कर हैं, जिस व्यक्ति से मैं अत्यंत सहानुभूति रखता हूं। वह मुझे प्राण से भी ज्यादा पसंद है। मुझे उनके जीवन का आसान और संघर्ष-मुक्त चरण हीं मिल रहा है। मुझे उनके रास्ते में आने वाले आसान, स्पष्ट या सार्वभौमिक रूपी मार्ग का विकल्प नहीं मिल रहा हैं। मैं जिस तरह से संघर्ष और दुविधाओं की अंतहीन श्रृंखला का सामना करता हूं, मुझे उनके जीवन ने जिस तरह से एक राह दिखाया है, मै उसका ऋणि हो गया हूं। एक सभा में, लाइन फैशन, बिना किसी बिंदु पर, समझौता या समायोजन का व्यक्तित्व होने के नाते मैं तहे दिल से उन्हें नमन करता हूं। अपने जीवन में बोस ने इतनी कठिनाई आने के बावजूद उन्होंने अपनी भीतर की संवेदनशीलता को बरकरार रखा रखते हुए उनकी समग्रता, उनकी निष्पक्षता के बीच जीवन की चिताओं को अपने उपर हावी होने नहीं दिया। बहुतों की तरह मैंने भी कुछ बिंदुओं पर उनके जीवन के “अगर यह होता” पहलू पर विचार किया है। यह देखते हुए कि मैं दशकों से वर्ल्ड वार 2 का एक जुनूनी उपभोक्ता रहा हूं। यहां तक कि मैं भी नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में थोड़ा पढ़ा और थोड़ा लिखा। समय के साथ दिमाग ने खुद के हिसाब से इससे जुड़ी कहानियाँ बना ली। इस अनुमान में कि अभी ‘यदि यह होता तो सुभाष क्या करते…? इसके बाद ही मैंने भारतीय संदर्भ में पढ़ने के लिए कुछ इसी कहानियों की खोज की जैसे, रॉबर्ट हैरिस की पितृभूमि। मुझे उनके वास्तविक जीवन के बारे में बहुत कुछ नहीं मिला, शायद इसलिए आज भी बोस के जीवन को लेकर इतना रहस्य, ख्वाइश और अटकलें लगायी जाती रहती हैं। फिर भी मैंने किसी तरह वह किताब लिख डाली, जिसे मैं वर्षों से उनपर लिखना चाहता था।

इस पुस्तक के बारे में कंत ने कहा, यह एक जबरदस्त पठनीय पुस्तक है, क्योंकि चतुर्वेदी हर विषय पर अपनी रचना में काफी कारुणिक शब्दों का इस्तेमाल कर अपने अनुभव का रस घोलते हैं। सुभाष चंद्र बोस जिस नैतिक दुविधा से गुजर रहे थे, उसकी कल्पना करें। क्यों कि भारत को स्वाधीन कराना उनका प्रमुख लक्ष्य था। देश को स्वाधीनता के मार्ग पर ले जाने के दौरान बोस को नाजियों के साथ काम करना पड़ा। इन सभी दुविधाओं को इस तरह के आकर्षक विवरण के साथ पुस्तक में पेश किया गया है। यह पुस्तक बोस के चरित्र, उनकी विशिष्टता और भारत की स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाती है। मेरे द्वारा हाल के दिनों में पढ़ी गयी किताबों में बोस की जीवन पर आधारित यह सबसे बेहतरीन किताबों में से एक हैी

इस अवसर पर सेठ ने दर्शकों को बताया कि, लेखक शिल्प, कल्पना और सहानुभूति से भरे होते हैं। यह पुस्तक सिर्फ नेताजी के व्यक्तित्व को ही नहीं, बल्कि उनके उद्देश्य को भी परिभाषित करती है। कुछ चुनिंदे किताबों में ही इस तरह का विवरण देखा गया है। जब इतिहास को वास्तविक रूप से व्यक्त किया जाता है, तो इसे अधिक याद किया जाता है। यही कारण है कि बहुत कम इतिहासकार महान लेखकों की श्रेणी में अपनी जगह बना पाते हैं, क्योंकि वे मूल कहानी को विस्तृत तरीके से कहने से चूक जाते हैं। जहां इस तरह की पुस्तक, अपनी लेखनी के कारण स्कोर कर जाती है, हर महान लेखक को यह याद रखना होगा कि, आपको अपनी लेखनी में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को हमेशा ध्यान में रखना है।

चर्चा को आगे बढ़ाते हुए नीला ने कहा, इतिहास में वापस जाना, किसी के दिमाग को इस तरह पढ़ना, यह बहुत साहसी प्रतिभा है। मैंने कभी ऐतिहासिक कथा नहीं पढ़ी, यह मेरी पहली पुस्तक है। इस अद्वितीय लेख के लिए लेखक अंशुल को मेरी तरफ से तहे दिल से सलाम।

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